सलोक भगत कबीर जीउ के (श्री गुरुग्रंथ साहब )
कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ,
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ।
कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ,
मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु।
कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ,
जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ।
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ,
हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु। (सलोक ५ -८ )
अर्थबोध : कबीर जी कहते हैं कि कोई विरला ही ऐसा होता है ,जो जीवित ही मृतक समान होता है।जीते जी देहभान से मर जाता है। सुख दुख में समभाव हो जाता है। मरजीवा हो जाता है। माया के बीच रहता हुआ माया के कुनबे का पोषण करता हुआ बाहर भले माया से जुड़ा रहता है और अंदर नाम जप करता है। ऐसा ही व्यक्ति जीवन मुक्त कहलाता है। निर्लेप रहता है भोग भी करता है भोग में रमता नहीं है उसका मन। भोग भी उसके लिए एक कर्म बन जाता है।
वह फिर परमात्मा के समान ही हो जाता है।
हरि जन हर ही होइ।
जो ब्रह्म को जान लेता है वह फिर ब्रह्म ही हो जाता है।
तूँ तूँ करते तूँ हुआ ,मुझमें रहा न "हूँ ",
आपा पर का मिट गया मुझमें रहा न हूँ।
अब मैं जिधर देखता हूँ तुझे ही देखता हूँ। तू ही दीसता है। वह सर्वव्याप्ति गुण रूप स्वयं ही हो जाता है।
लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल
लाली देखन में गई ,मैं भी हो गई लाल।
कबीर कहते हैं जिस दिन अहंता मर जाती है। जीव का अहम भाव मर जाता है 'हउमै' जाती है ,सब आनंदमय हो जाता है जब 'मैं भाव 'मिट जाता है।
जा मरने ते जग डरे मेरे ,मेरे मन आनंद ,
मरने ते ही पाइये पूरन परमानंद।
सत्संगति में रहकर प्रभुभजन करने से मुझे परमात्मा मिल गया है (यही परमानंद का स्रोत है ).
कबीर जी कहते हैं कि हम सबसे बुरे हैं ,हमारे अतिरिक्त अन्य सब भले हैं जो ऐसा जान लेता (अर्थात अहम भाव को पूर्णतया त्याग देता है ),वही हमारा मित्र है।
कबीर जी कहते हैं माया अनेक वेशों में हमारे ढिंग (नज़दीक )आई ,किन्तु हमारा संरक्षक तो गुरु है (वह हमें प्रभावित नहीं कर सकी ),इसलिए हमें प्रनाम करके लौट गई। माया परमात्मा की दासी है।
https://www.youtube.com/watch?v=Lz5KIbxgyes
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कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ,
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ।
कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ,
मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु।
कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ,
जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ।
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ,
हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु। (सलोक ५ -८ )
अर्थबोध : कबीर जी कहते हैं कि कोई विरला ही ऐसा होता है ,जो जीवित ही मृतक समान होता है।जीते जी देहभान से मर जाता है। सुख दुख में समभाव हो जाता है। मरजीवा हो जाता है। माया के बीच रहता हुआ माया के कुनबे का पोषण करता हुआ बाहर भले माया से जुड़ा रहता है और अंदर नाम जप करता है। ऐसा ही व्यक्ति जीवन मुक्त कहलाता है। निर्लेप रहता है भोग भी करता है भोग में रमता नहीं है उसका मन। भोग भी उसके लिए एक कर्म बन जाता है।
वह फिर परमात्मा के समान ही हो जाता है।
हरि जन हर ही होइ।
जो ब्रह्म को जान लेता है वह फिर ब्रह्म ही हो जाता है।
तूँ तूँ करते तूँ हुआ ,मुझमें रहा न "हूँ ",
आपा पर का मिट गया मुझमें रहा न हूँ।
अब मैं जिधर देखता हूँ तुझे ही देखता हूँ। तू ही दीसता है। वह सर्वव्याप्ति गुण रूप स्वयं ही हो जाता है।
लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल
लाली देखन में गई ,मैं भी हो गई लाल।
कबीर कहते हैं जिस दिन अहंता मर जाती है। जीव का अहम भाव मर जाता है 'हउमै' जाती है ,सब आनंदमय हो जाता है जब 'मैं भाव 'मिट जाता है।
जा मरने ते जग डरे मेरे ,मेरे मन आनंद ,
मरने ते ही पाइये पूरन परमानंद।
सत्संगति में रहकर प्रभुभजन करने से मुझे परमात्मा मिल गया है (यही परमानंद का स्रोत है ).
कबीर जी कहते हैं कि हम सबसे बुरे हैं ,हमारे अतिरिक्त अन्य सब भले हैं जो ऐसा जान लेता (अर्थात अहम भाव को पूर्णतया त्याग देता है ),वही हमारा मित्र है।
कबीर जी कहते हैं माया अनेक वेशों में हमारे ढिंग (नज़दीक )आई ,किन्तु हमारा संरक्षक तो गुरु है (वह हमें प्रभावित नहीं कर सकी ),इसलिए हमें प्रनाम करके लौट गई। माया परमात्मा की दासी है।
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