संचित कर्म जब पक जाते हैं उनका फल ज़रूर प्राप्त होता है
इस बात को हम इस सच्चे कथानक की मार्फ़त समझायेंगे :
इस लेख माला की पहली क़िस्त में हम बतला चुके हैं :
है चक्रवत विधि की गति ,ऊपर कभी नीचे कभी ,
सुख दुःख न रहते, सम कभी , आते कभी ,जाते कभी।
संचित कर्म नष्ट नहीं होता है भविष्य के गर्भ में चला जाता है गर्भकाल पूरा होने पर इसका फल ज़रूर मिलता है।
एक हाईकोर्ट के जज थे एक मर्तबा शिमला जा रहे थे ,मार्ग एक दम से सूना था आसपास कोई दिखाई नहीं देता था ,रास्ते में उन्होंने देखा एक आदमी बे -तहाशा भागा चला जा रहा है। उसके पीछे दो आदमी पड़े थे थोड़ी ही देर में वह उसके पास पहुंचे और एक ने उसे कसके पकड़ा दूसरे ने उसके सीने में गोली मार दी।जज साहब ने उसके हत्यारों को देख लिया था ,इस डर से के वह हत्यारे उन्हें पहचान न लें उन्होंने कार तेज़ कर दी और उनकी पहुँच से बाहर निकल के चैन की साँस ली।कुछ समय बाद उनके कोर्ट में एक हत्या का मामला आया महरूम का चित्र उन्होंने देखा और उसे पहचान लिया। लेकिन ये क्या कटहरे में खड़ा व्यक्ति कोईऔर था जो गिड़गिड़ा कर कह रहा था जज साहब मैं सच कह रहा हूँ मैंने उस व्यक्ति की हत्या नहीं की थी मैं निर्दोष हूँ।जज साहब जानते थे यह जो कुछ कह रहा है सच कह रहा है लेकिन साक्ष्य तमाम उसके खिलाफ जा रहे थे। उन्होंने उसे अति दुखी मन से फांसी की सजा लिख दी।
संचित कर्म फल सिद्धांत से उनका विश्वास हिल गया वह नास्तिक हो गए। कालान्तर में सेवा निवृत्ति से ठीक पहले एक और मामला ऐसा ही उनके न्यायालय में आया.इस बार कटहरे में खड़ा व्यक्ति कोई और नहीं वह पूर्व हत्यारा था जो रो रोकर कह रहा था जज साहब मैंने इसकी हत्या नहीं की। जज साहब ने उसे भी फांसी की सजा लिख दी। और अगले ही महीने वह सेवा मुक्त हो गए। वह व्यक्ति जेल में पड़ा फांसी के दिन की प्रतीक्षा करने लगा। जज साहब कौतुहल वश उससे मिलने गए उसे आश्वस्त किया अब मैं जज नहीं हूँ ,सेवानिवृत्त हूँ और यह भी जानता हूँ तुम निर्दोष हो और उसे उस पहले व्यक्ति का चित्र दिखलाते हुए पूछा इस व्यक्ति को जानते हो। वह काँपा अंदर से। और उसने सब कुछ सच -सच बतलाया -जज साहब वह मेरा अच्छा वक्त था मेरे रसूकात भी बहुत थे आज मैं निहथ्था हूँ तब मैं दोषी होते हुए भी बच गया और आज निर्दोष होते हुए भी असहाय हूँ।
जज साहब का खोया हुआ विश्वास लौट आया। उन्होंने अपने आप से कहा उस वक्त इस आदमी का वक्त अच्छा था किसी पूर्व जन्म के पुण्य के प्रताप से यह बच गया। लेकिन संचित कर्म फल उस वक्त का अब पक चुका था उसी की इसे सजा मिली है। इस कथानक का सन्देश यही है संचित कर्म पक जाने पर फल ज़रूर देते हैं।
कर्म गति टारे नाहीं टरी ,
मुनि वशिष्ठ से पंडित ग्यानी सोचके लगन धरी .
इस बात को हम इस सच्चे कथानक की मार्फ़त समझायेंगे :
इस लेख माला की पहली क़िस्त में हम बतला चुके हैं :
है चक्रवत विधि की गति ,ऊपर कभी नीचे कभी ,
सुख दुःख न रहते, सम कभी , आते कभी ,जाते कभी।
संचित कर्म नष्ट नहीं होता है भविष्य के गर्भ में चला जाता है गर्भकाल पूरा होने पर इसका फल ज़रूर मिलता है।
एक हाईकोर्ट के जज थे एक मर्तबा शिमला जा रहे थे ,मार्ग एक दम से सूना था आसपास कोई दिखाई नहीं देता था ,रास्ते में उन्होंने देखा एक आदमी बे -तहाशा भागा चला जा रहा है। उसके पीछे दो आदमी पड़े थे थोड़ी ही देर में वह उसके पास पहुंचे और एक ने उसे कसके पकड़ा दूसरे ने उसके सीने में गोली मार दी।जज साहब ने उसके हत्यारों को देख लिया था ,इस डर से के वह हत्यारे उन्हें पहचान न लें उन्होंने कार तेज़ कर दी और उनकी पहुँच से बाहर निकल के चैन की साँस ली।कुछ समय बाद उनके कोर्ट में एक हत्या का मामला आया महरूम का चित्र उन्होंने देखा और उसे पहचान लिया। लेकिन ये क्या कटहरे में खड़ा व्यक्ति कोईऔर था जो गिड़गिड़ा कर कह रहा था जज साहब मैं सच कह रहा हूँ मैंने उस व्यक्ति की हत्या नहीं की थी मैं निर्दोष हूँ।जज साहब जानते थे यह जो कुछ कह रहा है सच कह रहा है लेकिन साक्ष्य तमाम उसके खिलाफ जा रहे थे। उन्होंने उसे अति दुखी मन से फांसी की सजा लिख दी।
संचित कर्म फल सिद्धांत से उनका विश्वास हिल गया वह नास्तिक हो गए। कालान्तर में सेवा निवृत्ति से ठीक पहले एक और मामला ऐसा ही उनके न्यायालय में आया.इस बार कटहरे में खड़ा व्यक्ति कोई और नहीं वह पूर्व हत्यारा था जो रो रोकर कह रहा था जज साहब मैंने इसकी हत्या नहीं की। जज साहब ने उसे भी फांसी की सजा लिख दी। और अगले ही महीने वह सेवा मुक्त हो गए। वह व्यक्ति जेल में पड़ा फांसी के दिन की प्रतीक्षा करने लगा। जज साहब कौतुहल वश उससे मिलने गए उसे आश्वस्त किया अब मैं जज नहीं हूँ ,सेवानिवृत्त हूँ और यह भी जानता हूँ तुम निर्दोष हो और उसे उस पहले व्यक्ति का चित्र दिखलाते हुए पूछा इस व्यक्ति को जानते हो। वह काँपा अंदर से। और उसने सब कुछ सच -सच बतलाया -जज साहब वह मेरा अच्छा वक्त था मेरे रसूकात भी बहुत थे आज मैं निहथ्था हूँ तब मैं दोषी होते हुए भी बच गया और आज निर्दोष होते हुए भी असहाय हूँ।
जज साहब का खोया हुआ विश्वास लौट आया। उन्होंने अपने आप से कहा उस वक्त इस आदमी का वक्त अच्छा था किसी पूर्व जन्म के पुण्य के प्रताप से यह बच गया। लेकिन संचित कर्म फल उस वक्त का अब पक चुका था उसी की इसे सजा मिली है। इस कथानक का सन्देश यही है संचित कर्म पक जाने पर फल ज़रूर देते हैं।
कर्म गति टारे नाहीं टरी ,
मुनि वशिष्ठ से पंडित ग्यानी सोचके लगन धरी .
Comments
Post a Comment