है चक्रवत विधि की गति ,ऊपर कभी नीचे कभी ,
सुख दुःख न रहते, सम कभी , आते कभी ,जाते कभी।
मनुष्य अपने कर्मों से ही सुख और दुःख का भोग करता है। उसके कर्म ही उसके सुख का कारण बनते हैं उसके कर्म ही उसके दुःख का कारण बनते हैं। अच्छे कर्मों के अच्छे फल प्राप्त करता है बुरे कर्मों के बुरे फल प्राप्त करता है। जो करता है वही भरता है।
यदि फल को देखें तो क्रियमाण कर्म जो हम आज कर रहें हैं उसका फल कुछ समय में ही प्राप्त हो जाता है।लेकिन कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल हमें तुरंत प्राप्त नहीं होता है। हम करते तो हैं वह बुरे कर्म भी हो सकते हैं अच्छे कर्म भी हो सकते हैं। कोई व्यक्ति बुरा कर्म करता है किये ही जा रहा है लेकिन प्रत्यक्षतय: उसे अपने बुरे कर्मों का फल प्राप्त नहीं हो रहा। और ऐसा देखकर कई लोगों को कर्मफल सिद्धांत पर संशय पैदा हो जाता है। के प्रभु पक्षपात कर रहे हैं उसकी बुराई का फल उसे नहीं दे रहे हैं। और यह भी वह कहते हैं हम तो अच्छे कर्म कर रहे हैं हमें कष्ट ही कष्ट मिल रहा है। हमारे हिस्से में तो कष्ट ही कष्ट लिख दिया है प्रभु ने। और कुछ अन्य पाप करके भी सुखी हैं। कौन सा सिद्धांत है ,नियम है इसके पीछे आखिर इस सबका कारण क्या है ?
'क्रियमाण' कर्म वह होते हैं जिनका फल हमें प्राप्त हो जाता है लेकिन जिनका नहीं हुआ उन कर्मों को हम 'संचित- कर्म' कहते हैं।तात्पर्य यह है के उन कर्मों का फल अभी हमें नहीं मिला है यह नहीं के वह नष्ट हो गए हैं। उनका अस्तित्व तो है लेकिन उनका संचय हो गया है वह संचित हो गए हैं।समय आने पर उनका फल प्राप्त होगा। भविष्य में हो सकता है कुछ वर्ष बाद। दस ,बीस ,पच्चीस ,पचास अगर इस जन्म में नहीं तो उस जन्म में उनका फल प्राप्त होगा।
कर्म कौन करता है इसे समझना ज़रूरी है। कर्म का संबंध इस शरीर से नहीं है इस जीव से है। और इस जीव की कभी मृत्यु नहीं होती।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी ,
चेतन अमल सहज सुख राशि।
कर्म प्रधान विश्व रची राखा ,
जो जस करहि , सो तस फल चाखा।
मृत्यु होने पर स्थूल शरीर ही नष्ट होता है जीव नहीं। शरीर तो एक यंत्र मात्र है। कर्म का संबंध जीव से है। कर्म करने का यंत्र है यह शरीर साथ ही साथ उस परम चेतना को भी प्राप्त करने का साधन यह कर्म शरीर ही है।
अगले जन्म तक भी उसे कर्मों का फल प्राप्त होता है। सच तो यह है कर्मों के आधार पर दूसरा जन्म होता है.
प्राणी तेरे पुण्य का जब तक है भण्डार।
तब तक सब कुछ माफ़ है ,करो गुनाह हज़ार।
अब जो वह बुरे कर्म कर रहा है उनका फल तो उसे मिलेगा ही। अब वह अपने पुण्य का फल भोग रहा है। भोग फल चुक जाने पर वह जीव अपने कर्मों का फल प्राप्त अवश्य करेगा। कर्मों का भोग किसी एक जन्म का नहीं अनेक जन्मों का होता है। ये संचित कर्म फल ही हमारे सामने सुख और दुःख के रूप में आते हैं।
कर्म जीव का है जो स्वयं इस देह का प्रयोग करता है कर्म के लिए। किन भावनाओं के साथ यह कर्म किया उसने । उसकी नीयत कैसी थी। कर्मदाता ईश्वर है। वह उसी नीयत को देखकर फल देगा।
कर्म करने मात्र पर जीव का अधिकार है फल ईश्वर देता है। कर्म के साथ कर्म की भावना जुड़ी होती है।
ऊपर वाला हमारी नीयत देखता है समाज नहीं देख पाता। दुनियावी लोग सतह पर घटने होने वाले सामाजिक कर्म को ही देखते हैं।
कर्म फल का सिद्धांत जीव की नीयत को देखता है। सिर्फ बाहर से दिखने वाले कर्म को नहीं। रावण का तप ईश्वर मिलन के लिए नहीं मायावी शक्तियों की प्राप्ति के लिए था और इसीलिए रावण अंततया मारा गया। कर्म फल सिद्धांत नीयत को देखता है कर्म के बाहरी आवरण को नहीं।
कालनेमि हनुमान को छलने के लिए रावण ने मार्ग में बिठलाया था निकट के एक सरोवर में एक देवी मगर-मच्छ के रूप में हनुमान की सहायता के लिए मौजूद थी उसने हनुमान को बतलाया था इसका राम -राम सिमरन ढोंग है और हनुमान ने उसे मार दिया था ।
कर्मफल सिद्धांत में भावना का बड़ा महत्व है।
एक लख पूत ,सवा लख नाती
ता रावण घर दीया न बाती।
उसकी तपस्या ,उद्देश्य उसका अहंकार था। मायावी शक्तियों को साधना था समाज हित नहीं था।
अर्जुन कुरुक्षेत्र की भूमि में युद्ध करने से इंकार कर देता है। कृष्ण उसे समझाते हैं दुर्योधन की विचारधारा का प्रचार होगा अगर तू युद्ध नहीं करेगा। समाज विजयी का अनुकरण करता है। अब यह युद्ध धर्म युद्ध का रूप धारण कर चुका है। तुम उठो और धरम की रक्षा के लिए युद्ध करो। अर्जुन अब युद्ध कर रहा है धर्म की स्थापना हेतु युद्ध कर रहा है। उद्देश्य और भावना अब अर्जुन की पवित्र हो गई और कर्मफल नीयत से ही प्राप्त होता है। अर्जुन के लिए कुरुक्षेत्र का युद्ध ही उसकी तपस्या बन जाती है। रावण ने तप किया लेकिन उसका उद्देश्य अपवित्र था। अर्जुन ने युद्ध ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किया। धर्म की स्थापना जगत कल्याण के लिए किया।
जीव को कर्म -फल, कर्म भावना के अनुसार ही मिलता है समय आने पर संचित कर्म का फल भी इसी के अनुसार मिलता है। कहीं कुछ जाने वाला नहीं है। संचित कर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है। हमारे समाज इतिहास पुराण आदि में संचित कर्म फलों अनेक वृत्तांत आपको मिलेंगे।
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=Q33Vq-ii4mQ
(२ )
सुख दुःख न रहते, सम कभी , आते कभी ,जाते कभी।
मनुष्य अपने कर्मों से ही सुख और दुःख का भोग करता है। उसके कर्म ही उसके सुख का कारण बनते हैं उसके कर्म ही उसके दुःख का कारण बनते हैं। अच्छे कर्मों के अच्छे फल प्राप्त करता है बुरे कर्मों के बुरे फल प्राप्त करता है। जो करता है वही भरता है।
यदि फल को देखें तो क्रियमाण कर्म जो हम आज कर रहें हैं उसका फल कुछ समय में ही प्राप्त हो जाता है।लेकिन कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल हमें तुरंत प्राप्त नहीं होता है। हम करते तो हैं वह बुरे कर्म भी हो सकते हैं अच्छे कर्म भी हो सकते हैं। कोई व्यक्ति बुरा कर्म करता है किये ही जा रहा है लेकिन प्रत्यक्षतय: उसे अपने बुरे कर्मों का फल प्राप्त नहीं हो रहा। और ऐसा देखकर कई लोगों को कर्मफल सिद्धांत पर संशय पैदा हो जाता है। के प्रभु पक्षपात कर रहे हैं उसकी बुराई का फल उसे नहीं दे रहे हैं। और यह भी वह कहते हैं हम तो अच्छे कर्म कर रहे हैं हमें कष्ट ही कष्ट मिल रहा है। हमारे हिस्से में तो कष्ट ही कष्ट लिख दिया है प्रभु ने। और कुछ अन्य पाप करके भी सुखी हैं। कौन सा सिद्धांत है ,नियम है इसके पीछे आखिर इस सबका कारण क्या है ?
'क्रियमाण' कर्म वह होते हैं जिनका फल हमें प्राप्त हो जाता है लेकिन जिनका नहीं हुआ उन कर्मों को हम 'संचित- कर्म' कहते हैं।तात्पर्य यह है के उन कर्मों का फल अभी हमें नहीं मिला है यह नहीं के वह नष्ट हो गए हैं। उनका अस्तित्व तो है लेकिन उनका संचय हो गया है वह संचित हो गए हैं।समय आने पर उनका फल प्राप्त होगा। भविष्य में हो सकता है कुछ वर्ष बाद। दस ,बीस ,पच्चीस ,पचास अगर इस जन्म में नहीं तो उस जन्म में उनका फल प्राप्त होगा।
कर्म कौन करता है इसे समझना ज़रूरी है। कर्म का संबंध इस शरीर से नहीं है इस जीव से है। और इस जीव की कभी मृत्यु नहीं होती।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी ,
चेतन अमल सहज सुख राशि।
कर्म प्रधान विश्व रची राखा ,
जो जस करहि , सो तस फल चाखा।
मृत्यु होने पर स्थूल शरीर ही नष्ट होता है जीव नहीं। शरीर तो एक यंत्र मात्र है। कर्म का संबंध जीव से है। कर्म करने का यंत्र है यह शरीर साथ ही साथ उस परम चेतना को भी प्राप्त करने का साधन यह कर्म शरीर ही है।
अगले जन्म तक भी उसे कर्मों का फल प्राप्त होता है। सच तो यह है कर्मों के आधार पर दूसरा जन्म होता है.
प्राणी तेरे पुण्य का जब तक है भण्डार।
तब तक सब कुछ माफ़ है ,करो गुनाह हज़ार।
अब जो वह बुरे कर्म कर रहा है उनका फल तो उसे मिलेगा ही। अब वह अपने पुण्य का फल भोग रहा है। भोग फल चुक जाने पर वह जीव अपने कर्मों का फल प्राप्त अवश्य करेगा। कर्मों का भोग किसी एक जन्म का नहीं अनेक जन्मों का होता है। ये संचित कर्म फल ही हमारे सामने सुख और दुःख के रूप में आते हैं।
कर्म जीव का है जो स्वयं इस देह का प्रयोग करता है कर्म के लिए। किन भावनाओं के साथ यह कर्म किया उसने । उसकी नीयत कैसी थी। कर्मदाता ईश्वर है। वह उसी नीयत को देखकर फल देगा।
कर्म करने मात्र पर जीव का अधिकार है फल ईश्वर देता है। कर्म के साथ कर्म की भावना जुड़ी होती है।
ऊपर वाला हमारी नीयत देखता है समाज नहीं देख पाता। दुनियावी लोग सतह पर घटने होने वाले सामाजिक कर्म को ही देखते हैं।
कर्म फल का सिद्धांत जीव की नीयत को देखता है। सिर्फ बाहर से दिखने वाले कर्म को नहीं। रावण का तप ईश्वर मिलन के लिए नहीं मायावी शक्तियों की प्राप्ति के लिए था और इसीलिए रावण अंततया मारा गया। कर्म फल सिद्धांत नीयत को देखता है कर्म के बाहरी आवरण को नहीं।
कालनेमि हनुमान को छलने के लिए रावण ने मार्ग में बिठलाया था निकट के एक सरोवर में एक देवी मगर-मच्छ के रूप में हनुमान की सहायता के लिए मौजूद थी उसने हनुमान को बतलाया था इसका राम -राम सिमरन ढोंग है और हनुमान ने उसे मार दिया था ।
कर्मफल सिद्धांत में भावना का बड़ा महत्व है।
एक लख पूत ,सवा लख नाती
ता रावण घर दीया न बाती।
उसकी तपस्या ,उद्देश्य उसका अहंकार था। मायावी शक्तियों को साधना था समाज हित नहीं था।
अर्जुन कुरुक्षेत्र की भूमि में युद्ध करने से इंकार कर देता है। कृष्ण उसे समझाते हैं दुर्योधन की विचारधारा का प्रचार होगा अगर तू युद्ध नहीं करेगा। समाज विजयी का अनुकरण करता है। अब यह युद्ध धर्म युद्ध का रूप धारण कर चुका है। तुम उठो और धरम की रक्षा के लिए युद्ध करो। अर्जुन अब युद्ध कर रहा है धर्म की स्थापना हेतु युद्ध कर रहा है। उद्देश्य और भावना अब अर्जुन की पवित्र हो गई और कर्मफल नीयत से ही प्राप्त होता है। अर्जुन के लिए कुरुक्षेत्र का युद्ध ही उसकी तपस्या बन जाती है। रावण ने तप किया लेकिन उसका उद्देश्य अपवित्र था। अर्जुन ने युद्ध ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किया। धर्म की स्थापना जगत कल्याण के लिए किया।
जीव को कर्म -फल, कर्म भावना के अनुसार ही मिलता है समय आने पर संचित कर्म का फल भी इसी के अनुसार मिलता है। कहीं कुछ जाने वाला नहीं है। संचित कर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है। हमारे समाज इतिहास पुराण आदि में संचित कर्म फलों अनेक वृत्तांत आपको मिलेंगे।
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )https://www.youtube.com/watch?v=Q33Vq-ii4mQ
(२ )
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